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फिक्र


सुबह सुबह 

घरके पीछे बग़ीचेमे 

थोई देर ही सही 

टहल लेता हु। 

कभी पानी देने के लिए ,

तो कभी बिनावजह। 


फिर ये ख्याल आता है

इन पेडोने कल ठंडभरी रात 

अकेले कैसे गुजारी होगी ?

जब मैं  कम्बल ओढ़े ,

इस सर्द मौसम में बाहर कैसे निकलू?

ये सोचते मन बना रहा था ,

तो कही ये मेरे इंतज़ार में 

डुबे तो नहीं थे न ?


जब तक हवा नहीं चलती 

सब आराम से सोते रहते है। 

धुप आनेतक ओस की बून्दोंसे 

नहाभी  लेते है 

और मै  हु उनका बावर्ची 

जो सुबह ब्रेकफास्ट लेके 

पहुंच जाता हु 

और सुनता हु उनकी शिकायते। 

शिकायत वही पुरानी 

ये हर रोज  आता नहीं। 


कुछ टहनिया लिपट भी जाती है 

मुझे फिर उनको हलके हातोंसे 

छुड़वाना पड़ता है 

अगर काटे हो तो 

थोड़े ज्यादाही सावधानी से 

लेकिन मै उनपर गुस्सा नहीं होता 

मुझे पता है ,

कसूरवार मै  ही हु। 


उन सूखे पत्तोंको वही ,

जमीपे छोड़ देता हु। 

जहा से जन्मे,

वही दफ़न हो 

और अगला जनम 

मेरे आँगन में हो। 


फ़ूलोंको छूता तक नहीं 

हम आखिर इंसान है 

और ये हात पाक बिलकुल नहीं 

लाख समझाने पर भी 

वो हमारा पीछा नहीं छोड़ते 

उनकी महक जब हमें 

छू के जाती है ,

कसमसे, यादें महका देती  है। 

अफ़सोस जताते है उनसे 

तुम तितलियोंके लिए बने हो ,

बालोंके जुड़े की 

उम्मीद मत रखना। 


सुखी टहनियोमे मुझे 

मेरा बुढ़ापा दिखाई देता है। 

फिर उन सूखे पेड़ोंको भी 

डालता हु पानी 

सोचकर कही कोई एक शाख ,

बाहर  निकलने की

फिराकमे न बैठी हो। 


चंद समय में मेरी जिम्मेदारी 

मानो ख़त्म होती है। 

एक बाप की तरह 

कर देता हु हवाले ,

उन जवान किरणोंके हाथ 

मन तो नहीं करता... 

पर पता होता है 

छाव में तो बचपन खिलता है 

धुप बनाती है -सवारती  है जिंदगी। 

अगले नस्ल को ,

एक नयी रूह देने के लिए। 


अगली सुबह फिर ,

यही सोचके ,

बगीचे में टहल आता हु ,

कही ये पेड़, फूल, पत्ते, 

मेरा इंतज़ार तो 

नहीं कर रहे थे न?



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