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मरासिम

उन खुदसर यादोंको जाने क्यों मनाता हूं

कुछ देर छुप जाए कही हररोज मनाता हूं


कमीयों के बावजूद तुझे उतनाही चाहता हूं

ख़यालोमे तेरे होनेका जश्न हररोज मनाता हूं


गुलपोशी में गुमी तेरी मसर्रत ढूंढता हु

अज़ली रातकी सुबह हररोज मनाता हु


परेशान मरासिम को क्या नाम दु सोचता हूं

गुजरे रिश्ते का अहसास हररोज मनाता हु




1 comment:

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