दररोज आम्हाला बेसुमार पिळलं जातं
आम्हाला वाईट वाटेल म्हणुन कि काय,
उदया परत वापरण्यासाठी,
वाळत 'टाकलं ' जातं
रेशमी धोतराचा कधी फडका होत नाही ,
पण चांगल्या साडीचा होऊ शकतो,
जिथे भावनाच निर्माल्य होऊ शकतात,
तिथे गुलाब काय घाणेरी सारखंच .
भावनांचा फुलोरा शब्दांचा धुमारा, काळाच्या गर्दीत मनाचा पसारा. जपताना त्या आठवणी, चार ओळी तुझ्यासाठी !
अचानक से याद आया
तो गंजीखाने मे पडी संदुक को खोला
और उसके तले मे मिले
कुछ लम्हे मलमल के कपड़े में लपेटे हुए
केवड़े की खुशबू ने
उन्हें कई साल बेहोश कर रखा था
अब मैं आ गया हूं
वरना इन्हें बस यादों का सहारा था
देखते मुझे लिपट लिए
रोने लगे बच्चे की तरह
जैसे अभी जन्मे हो
और माँ से लिपट गए हो
आज भी उतनेही गुलाबी है
जितने कभी एक जमाने में होते थे
बस बढ़ गयी थी झुर्रिया
जो और उभर रही थी मुस्कुराने से
संदूक में और भी कुछ दिखा
समेटने उन्हें मेरे हाथ अपने आप बढ़े
लेकिन वो शर्माए यादोँसे ज्यादा
समझ गया ये वही थे आधे अधूरे वादे
वादे जो तुमने मुझसे
और मैंने मुझसे किए थे
राह अंततक साथ चलने के
ये आखिर से उस आखिर तक
घबराए सहमेसे कोने में जा बैठे
शायद नाराज थे अपने आप से
कुछ पूरे नही होते तो कुछ
पूरे नही कर सकते, समझाया उन्हें
कुछ छोडना मुनासिब है
आगे बढ़ने के लिये
तो कई को निभाना
जरूरी है जीने के लिये
जो पिछे रह जाते है
वो बुरे नही होते
वापस मिलही जाते है
चाहे हो लम्हे, यादे, या फिर वादे !