खामोशी
खामोशी कितनी अजीब है !
खामोश होते हुए भी ,
बहुत कुछ कहती है ,
और फिर भी ,
कुछ नहीं कह पाती।
और देखो उस आहट को ,
छोटीसी जान ,
मगर एक हल्कीसी आहट ,
भावनाओंसे भरी ,
कई किताबें लिख देती है !
और उस आहट के बाद ,
खामोशिसे भरे अनगिनत पल ,
सबूत होते है ,
उन तमाम जज्बातोंके ,
जो कभी जन्मे ही नहीं।
फिर शुरू होता है ,
क़यासोंका ' सिलसिला ',
अगर ऐसा होता ,
तो कैसा होता ?
तुम ये कहती !
तुम वो कहती !
तुम इस बात पे हैरान होती !
तुम उस बात पे कितनी हसती !
......
.....
.....
......
मै और मेरी तन्हाई अक्सर ये बाते करते है !
( आखिरी लाइने जावेद अख्तर साहब के वही मशहूर गाने से ली है, उनकी क्षमा मांगकर | मकसद कविता को एक रोमांचक मोड़ पे ख़तम करना था | )
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